अंतरा भाग 2 – कक्षा 12 के लिए हिंदी (ऐच्छिक) की पाठ्यपुस्तक story खंड – पाठ-11
यह खंड पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी की जीवन यात्रा, उनकी बहुभाषाविदा प्रतिभा, उनकी प्रमुख कृतियाँ और उनके द्वारा लिखे गए तीन लघु निबंधों: बालक बच गया, घड़ी के पुर्जे, और ढेले चुन लो के विषय में विस्तार से जानकारी प्रदान करता है।
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Categories: NCERT, कक्षा 12, हिंदी, ऐच्छिक, story खंड, पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी, जीवनी, लघु निबंध, साहित्य
Tags: अंतरा, हिंदी ऐच्छिक, कक्षा 12, पंडित चंद्रधर शर्मा गुलेरी, बालक बच गया, घड़ी के पुर्जे, ढेले चुन लो, लघु निबंध, साहित्य, NCERT
पाठ-1 – पंडित चन्द्रशेखर जयशंकर: (क) बच्चा बच गया, (ख) कंगी के बीज, (ग) छल चुनौ - हिंदी साहित्य अध्याय अल्टीमेट स्टडी गाइड 2025
पाठ-1 – पंडित चन्द्रशेखर जयशंकर: (क) बच्चा बच गया, (ख) कंगी के बीज, (ग) छल चुनौ
हिंदी साहित्य अध्याय: पूर्ण सारांश, जीवनी, निबंध, प्रश्न-उत्तर | एनसीईआरटी कक्षा 11/12 नोट्स, उदाहरण, क्विज़ 2025
पूर्ण अध्याय सारांश एवं विस्तृत नोट्स - पंडित चन्द्रशेखर जयशंकर हिंदी एनसीईआरटी कक्षा 11/12
यह अध्याय पंडित चन्द्रशेखर जयशंकर के तीन निबंधों 'बच्चा बच गया', 'कंगी के बीज' और 'छल चुनौ' पर आधारित है। इन निबंधों के माध्यम से लेखक ने शिक्षा, धर्म और सामाजिक अंधविश्वासों पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी की है। अध्याय में लेखक की जीवनी, निबंधों का विश्लेषण, प्रश्न-अभ्यास, योग्यता-विस्तार और शब्दार्थ शामिल हैं।
अध्याय का उद्देश्य
पंडित चन्द्रशेखर जयशंकर की जीवनी समझना।
निबंधों का भावार्थ और साहित्यिक महत्व।
शिक्षा प्रणाली, धर्म और अंधविश्वासों का व्यंग्य।
मुख्य बिंदु
जयशंकर बहुभाषी विद्वान थे।
निबंध सरल भाषा में गहन विचार।
बच्चा बच गया: शिक्षा की उम्र।
कंगी के बीज: धर्म के रहस्य।
छल चुनौ: अंधविश्वास।
पंडित चन्द्रशेखर जयशंकर की जीवनी - पूर्ण विवरण
जन्म: लगभग 1883, जयपुर के अलवर में।
मृत्यु: 1922।
शिक्षा: बहुभाषाविद; हिंदी, संस्कृत, उर्दू, फारसी, ब्रज, राजस्थानी, मारवाड़ी, हाड़ोती, जाटी, सिंधी, गुजराती, पंजाबी, ब्राह्मी तथा अंग्रेजी भाषाओं में निपुण। संस्कृत के पंडित थे। प्राचीन इतिहास और पुरातत्व उनके प्रिय विषय थे। भाषा विज्ञान में गहन रुचि।
व्यक्तित्व: पत्रकारिता में सक्रिय; 'प्रकाश' (1903-06 ई.), 'प्रतिमा' (1911-12), 'प्रतिध्वनि' (1918-20) और 'जयपुर प्रतिनिधि पत्रिका' (1920-22) के संपादक। रचनात्मक व्यक्तित्व बहुमुखी।
साहित्यिक योगदान: उत्कृष्ट निबंध; तीन कहानियाँ: 'सुखमय जीवन', 'बूढ़े का कुआँ' और 'मैंने कहा था'। पत्रकारिता के साथ संस्थाओं में व्याख्यान। 1904 से 1922 तक महत्वपूर्ण संस्थाओं में व्याख्यान कार्य। इतिहास शिक्षक की उपाधि से सम्मानित। 11 फरवरी 1922 को बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने।
प्रमुख रचनाएँ:
निबंध: 'बच्चा बच गया', 'कंगी के बीज', 'छल चुनौ'।
कहानियाँ: सुखमय जीवन, बूढ़े का कुआँ, मैंने कहा था।
पत्रिकाएँ: प्रकाश, प्रतिमा, प्रतिध्वनि, जयपुर प्रतिनिधि पत्रिका।
विशेष: निबंध सामाजिक मुद्दों पर व्यंग्यपूर्ण। भाषा सरल, विचार गहन।
टिप: जीवनी को बिंदुवार पढ़कर आसानी से याद करें। प्रमुख रचनाओं की सूची बनाएँ और थीम्स को समझें।
बच्चा बच गया - पूर्ण पाठ एवं व्याख्या
एक विद्यालय का वार्षिकोत्सव था। मैं भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के प्रधानाध्यापक के इकलौते पुत्र की अवस्था आठ वर्ष की थी, बड़े यत्न से उपकृत में मेजर जनरल के डॉक्टर की तरह दिखाया जा रहा था। उसका चेहरा पीला था, आँखें लाल थीं, दृष्टि भूमि से उठती नहीं थी। प्रश्न पूछे जा रहे थे। उनके वह उत्तर दे रहा था। धर्म के दस लक्षण उसने सुने, नौ जड़ों के उदाहरण दिए। जल के चार तमाम के नीचे रेत जाने के कारण और इससे रोगों की रक्षा को समझा, पाचनक्रिया का वैज्ञानिक समाधान दिया, भाव को द्रव्य मानने मानने का दार्शनिक अर्थ कहा और बाबर के सम्राट अष्टम हुमायूँ की रानियों के नाम और विशेषताओं का वर्णन सुनाया। यह पूछा गया कि तू क्या करेगा। बच्चे ने सीखा-सुना उत्तर दिया कि मैं स्वतंत्रता सेवा करूँगा। सभा 'वाह-वाह' करती सुन रही थी, पिता का हृदय उल्लास से भरा था। एक वृद्ध महर्षि ने उसके सिर पर हाथ फेरकर आशीर्वाद दिया और कहा कि जो तूने माँगो वही लो। बच्चा कुछ सोचने लगा। पिता और अध्यापक इस प्रतीक्षा में लगे कि देखें यह पढ़ाई का फल कौन-सी पुस्तक माँगता है। बच्चे के मुख पर फिक्के रंगों का परिवर्तन हो रहा था, हृदय में विषाद और स्वाभाविक भावों की लड़ाई की झलक आँखों में झलक रही थी। कुछ हिचकिचाकर, होंठ चाटकर उदासी से गले के फड़कने पर स्वयं काँपकर बच्चा ने धीमे से कहा, 'माँ'। पिता और अध्यापक दुःखी हो गए। इतने समय तक मेरा अनुमान गलत रहा था। अब मैंने सुख से साँस भरी। उन बेचारे बच्चे की अभिव्यक्तियों का चित्र खींचने में कुछ मग्न न रहा था। पर बच्चा बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह 'माँ' की पुकार थोर के फल के गूदे के बीज था, मेरी कविता की व्याकरण की सिर दर्द देने वाली जटिलता नहीं।
समग्र विश्लेषण
भाव: शिक्षा का उद्देश्य मानसिक विकास, न कि बाल्यावस्था का दमन।
शिल्प: व्यंग्यपूर्ण, व्यक्तिगत अनुभव।
थीम: बच्चे की स्वाभाविकता बचाना।
कंगी के बीज - पूर्ण पाठ एवं व्याख्या
धर्म के रहस्य जानने की इच्छा प्रत्येक मनुष्य न करे, जो कहा जाए वही दम भरकर सुन ले, इस सत्यघोष के समर्थक में कंगी का बीज बहुत रक्तबीजों फोड़कर दिया जाता है। कंगी समय बताती है। किसी कंगी नोटिस करने वाले से समय पूछो और काम चलाओ। यदि व्याकुल हो तो कंगी नोटिस स्वयं सीखो वही जो तुम चाहते हो कि कंगी का पिछवाड़ा खोलकर देखें, बीज निकलें, उन्हें खोलकर फिर तेल निकालें, चाटने दो फिर चिपकाएँ फिर लगाएँ; यह तुमसे न होगा। तुम उसके व्याख्याता नहीं। यह तो वेदान्तिक धार्मिकवादियों का ही काम है कि कंगी के बीज जाने, तुम्हें इससे क्या? क्या इस व्याकुलता से तड़प सीध जाती है? इसी बीज को बढ़ाया जाए तो जो पंडित जी कह रहे हैं उनके विपरीत कई बातें फूट आएँगी। कंगी नोटिस तो सीख दो, इसमें तो जन्म और कर्म की जकड़ न पड़ती, फिर दूसरे से पूछने का झगड़ा क्यों? फूटने हम जानते हैं, वाद जानते हैं, घोड़ों की पीठ भी देख सकते हैं, फिर आँखें भी हैं तो हमें ही न देखने दो, जड़ों की कंगनियों में निबिज के बारह बजे हैं। तुम्हारी कंगी में अँधेरी रात है, पछवाड़ा खोलकर देख न लेने दो कि कौन सा घिसट रहा है, यदि बीज सही हैं और अँधेरी रात ही है तो हम फिर सो जाएँगे, अन्य कंगनियों को गलत न समझेंगे पर पछवाड़ा देख तो लेने दो। बीज खोलकर फिर सही करना इतना घातक काम नहीं है, लोग सीखते भी हैं, सिखाते भी हैं, अनकही के हाथ में चाहे कंगी हो दो पर जो कंगीकार का बीजक निकल कर आया है उसे तो देखने दो। साथ ही यह भी समझ लो कि तुम्हें स्वयं कंगी नोटिस करना, चाटना और साफ करना आता है कि नहीं। हमें तो घिन आती है कि इंकतक की कंगी तेल में डूबे फिरते हो, वह सीधी हो गई है, तुम्हें न तेल निकालना आता है न बीज साफ करना तो फिर दूसरों को हाथ न लगाने देते।
समग्र विश्लेषण
भाव: धर्म के रहस्यों को स्वयं जानना, पंडितों पर निर्भरता न करना।
शिल्प: व्यंग्यपूर्ण उपमा (कंगी के बीज)।
थीम: स्वतंत्र चिंतन।
छल चुनौ - पूर्ण पाठ एवं व्याख्या
शेक्सपियर के प्रसिद्ध नाटक 'टेम्पेस्ट' में मिरांडा अपने पिता को बड़ी सुंदर भाँति से चुनौती देती है। चूड़ामणि दयानंद के 'भारतीय वेद' में प्राच्य के समक्ष तीन विकल्प हैं—एक लोहे का, दूसरा चाँदी का, तीसरा सोने का। तीनों में (से) एक में उसकी प्रतिमा है। स्वयंवर के लिए जो आता है उसे कहा जाता है कि इनमें से एक चुन लो। वासुदेव लोहे को चुनता है और मोटे तारों लौटाता है। यक्ष के चाँदी की मूर्ति चमचमाती हुई दिखाई देती है। असली प्रेमी सोने को छूता है और काँपते हाथों से भारी भूलकर पकड़ता है। ठीक ऐसी ही विविध वैदिक काल में आर्यों में चलती थी। इसमें उज्ज्वल प्रतियोगिता थी, कन्या को चुनना पड़ता था। स्नातक होकर, ऊन-चर्म दान, भिक्षा माँगकर, दंड लेकर किसी ब्राह्मण के घर पहुँचता। वह उसे स्पर्श करता। पीछे वह दूनी के समक्ष कुछ नकली के छल रख देता। उसे कहता कि इसमें से एक उठा लो। कहीं सात, कहीं कम, कहीं अनेक। उज्ज्वल जानता था कि ये छल कहाँ-कहाँ से लाए हैं और किस-किस देश की (नकली) इनमें हैं। दूनी जानती नहीं थी। यही तो विवाह की चमत्कार थी। ओषधि की नकली, विद्यालय की नकली, खेत की नकली, बागों की नकली, मंदिर की मूर्ति—अनेक प्रकार होते थे। चुनो मेरी गोद में क्या है—फल या पीठ; यदि ओषधि का छल उठा ले तो वेदिक 'आर्य' होगा। विद्यालय चुना तो 'विद्यार्तियों का भूषण' होगा। खेत की नकली उठाई तो 'कृषक पुत्र' होगा। मंदिर की नकली को हाथ लगाना बड़ा अशुभ था। यदि वह कन्या चली गई तो घर मंदिर हो गया—सदा हारती रहती। यदि एक उज्ज्वल के समक्ष मंदिर की नकली उठाई तो उसका यह अर्थ नहीं कि उस दूनी का कभी विवाह न हो। किसी दूसरे उज्ज्वल के समक्ष वह ओषधि का छल उठा ले और चली जाए। बहुत से ग्रंथों में इन छलों की विविधता का उल्लेख है—ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद—सभी में है। जैसे राजपूतों की कन्याएँ पुराने समय में रूप देखकर, कुल सुनकर स्वयंवर करती थीं, वैसे वैदिक काल के आर्य छल चुनकर स्वयं विवाह करते थे। आप कह सकते हैं कि विवाह के सुखी की चुनौती नकली के छलों पर छोड़ना तो बहुत कूटरमानी है! अपनी आँखों से स्थान देखकर, अपने हाथ से चुने हुए नकली के मूर्तियों पर श्रद्धा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बड़े-बड़े नकली और अग्नि के छलों—मूर्ति और पूजारी और महंत—की निश्चित पीठ की निश्चित श्रद्धा करना क्यों अच्छा है, यह मैं क्या कह सकता हूँ? फिर भी उपनिषद के, वर्तमान के द्वार अच्छे हैं पुराने के द्वार से, वर्तमान का सिक्का अच्छा है पुरानी के सिक्के से। आँखों देखा छल अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस की दूरी फीम से! फिर भी दचन के—
फूले फूले मधु मिले तो तू फूल ही गा। इससे तो प्यार होगी, ममता भरे जग।
समग्र विश्लेषण
भाव: अंधविश्वासों पर व्यंग्य, स्वयंवर की तुलना।
शिल्प: उपमाएँ, ऐतिहासिक संदर्भ।
थीम: आधुनिकता vs परंपरा।
प्रश्न-अभ्यास - एनसीईआरटी समीक्षा
बच्चा बच गया
1- बच्चे से उसकी अवस्था और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए?
उत्तर:
धर्म के दस लक्षण, नौ जड़ों के उदाहरण, जल के चार तमाम, पाचनक्रिया, भाव का दार्शनिक अर्थ, बाबर की रानियाँ।
2- बच्चे ने क्यों कहा कि मैं स्वतंत्रता सेवा करूँगा?
उत्तर:
सीखा-सुना उत्तर।
3- बच्चे द्वारा भूल में माँ माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी?